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नियति की छलना पे रोये बहुत / उर्मिल सत्यभूषण
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नियति की छलना पे रोये बहुत
रो के कलुष मन के धोये बहुत
दिनभर घमासान करने के बाद
रातों को थक कर वो सोये बहुत
कदमों ने आखिर शिखरों को चूमा
कर्मो के बोझे तो ढोये बहुत
कोई तो इक दिन बनेगा हकीकत
आँखों ने सपने संजोये बहुत
गीतों से लहलहा उठीं क्यारियां
भावों के बीज हमने बोये बहुत
सहरा में उनसे सहारा मिला है
दामन जो हमने भिगोये बहुत
फूलों से महके पल जो मिले
जी भर जिये उनमें खोये बहुत
जीवन की धारा कहीं रुक न जाये
सो अरमान अपने डुबोये बहुत
उर्मिल न हारी रही रौंदती ही
राहों ने कांटे चुभोये बहुत।