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गिर नहीं सकती / महेन्द्र भटनागर

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गिर नहीं सकती कभी
विश्वास की दीवार !
निर्मित तप्त जन-जन के लहू से,
वज्र-सी / फौलाद-सी
दृढ़ हड्डियों से;
नींव के नीचे पड़े
कातर अनेकों मूक जन-बलिदान !

यह विश्वास
जीवन के नये भवितव्य का
धुँधला नहीं निस्सार !
गिर नहीं सकती कभी
अगणित प्रहारों से
नये विश्वास की दीवार !

वर्षों बाद
की निविड़ान्धकार सुरंग
जन-चेतना की शक्ति से
द्रुत पार,
ज्योतिर्मय हुआ संसार,
धधका सत्य का अंगार,
लोहे-सी खड़ी
जन-शक्ति की दीवार !

त्रास्त-शोषित-सर्वहारा-वर्ग
रक्षा के लिए
अपना उठाये सिर;
चुनौती दे रही उसको —
सतत साम्राज्य-लिप्सा-रक्त-नद में
वर्ग जो डूबा हुआ।

वह गिर नहीं सकती कभी
जन-संगठित-बल की
नयी दीवार !
टकरा लौट जाएगी
विरोधी धार !
बारम्बार लुण्ठित,
खा करारी हार !