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सर्दियाँ / मुहम्मद अल-मग़ूत / विनोद दास

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अकाल के दिनों में भेड़ियों की तरह
हम हर जगह बढ़ते जाते थे
हमें बारिश से प्यार था
हमें पतझड़ से मुहब्बत थी

एक दिन हमें यह ख़याल भी आया था
कि आसमान को एक शुक्रिया का ख़त भेजूँ
जिसमें पतझड़ की पत्ती का डाक-टिकट लगा हो

हम यक़ीन था कि पहाड़ ग़ायब हो जाएँगें
समुद्र ग़ायब हो जाएँगे
सभ्यता ग़ायब हो जाएगी
सिर्फ़ प्यार शाश्वत है

अचानक हम अलग हो गए
मेरी महबूबा को सोफ़ा पसन्द था
मुझे पानी का लम्बा जहाज़ पसन्द था
उसे कैफे में फुसफुसाना और ठण्डी साँसें भरना पसन्द था
मुझे रास्ते में उछलना-कूदना और चीख़ना पसन्द था

और इन सबके बावजूद
क़ायनात की तरह खुली मेरी बाहें
उसका इन्तज़ार कर रही हैं

अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास