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विवशता में / महेन्द्र भटनागर

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विवशता की
असह उन मूक घड़ियों में
गगन को चीरती आएँ
तुम्हारे प्यार की किरणें !
कि फिर
युग-युग पिपासित होंठ पर जग के
बहें मधु स्नेह के झरने !
मनुजता के पतन-निर्मित
अँधेरे के समय-पट पर,
गगन को चीरती आएँ
तुम्हारे प्यार की किरणें !

बहा ले जा घृणा के तृण,
अरी झेलम, अरी गंगा !
क्षितिज से उठ रहीं लपटें,
महा बर्बर विनाशी आपसी दंगा,
लुटेरा है खड़ा नंगा !

कि काले मेघ आओ तुम
कि काले मेघ छाओ तुम,
बरस लो आज झर-झर-झर,
कड़क कर आततायी के
हृदय में आज भर दो डर,
गिरा करका,
ढहा दो सब अशिव के गढ़ !
अरे ओ, त्राण के दुर्दम चरण !
उठ-चढ़
फिसलनी इन बड़ी ऊँची दिवारों पर,

समूची शक्ति के बल पर,
कि तेरे दृढ़ प्रहारों से
लगे ढहने,
सभी दीवार ये गिरने !
गगन को चीरती आएँ तभी
निर्देश पथ को दूर से
करती हुई किरणें !
तभी बाहें उठें तेरी
सभी पीड़ित उरों की गोद में भरने !

सदियाँ बीत जाएंगी,
कि नदियाँ सूख जाएंगी,
धरा यह डूब जाएगी,
नयी धरती उभर कर शीघ्र आएगी,
मगर विश्वास है इतना —
विरासत में मिलेगी यह
तुम्हारी भूमि की संस्कृति,
इसे केवल न जानो इति।
उठो ऐसा न हो मानव
भविष्यत् थूक दे तुम पर,
बनो मत मूक,
पशुता के चरण पर
नत नहीं हो शीश !
यह आशीष
दोनों ने दिया है —
शाप ने, वर ने।
गगन को चीरती आएँ
तुम्हारे प्यार की किरणें !