भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई बहाना आ गया / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:52, 30 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमलता त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
प्रेम में कोई बहाना आ गया।
दूर से आँखें चुराना आ गया।
प्रीत की नौका बढ़ी जब बाँवरी,
तोड़कर बंधन समाना आ गया।
राह काँटों से भरी होगी अगर,
पार होंने मन सयाना आ गया।
जीतना मैंने न चाहा था कभी,
हार के भी मुस्कराना आ गया।
आज भी रातें जगाती हैं मुझे,
गीत यादों में पुराना आ गया।
मीत हम तुम दो किनारे हो गये,
मान झूठा क्यों दिखाना आ गया।
रूठ कर वह जा नहीं सकते कहीं
प्रेम तुमको अब रिझाना आ गया।