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मीत जो मनको लुभाता है / प्रेमलता त्रिपाठी

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मिला पावन मनोहर मीत जो मनको लुभाता है।
नहीं आँसू नयन मेरे, कभी उसको सुहाता है।

गहन पीड़ा छिपाना हो, नयन छिपने नहीं देते,
खुशी के पल नयन भी झूमता खुशियाँ मनाता है।

बढ़ा ली प्रीति की नौका, नहीं चाहूँ किनारा अब,
रही जिसको सताती मैं, वही मुझको रिझाता है।

चली मैं हार जीवन को, नहीं थी जीत की चाहत,
कहीं अब ढूंढती आँखें, वही सावन बुलाता है।

घटा छाये बहकता मन, भिगोये वादियों को जो,
पवन चंचल झकोरे दे, कहीं आंचल उड़ाता है।

सखे साधक हमारा मन, फुहारें दे रहा सावन,
मचलता भीगता यह तन, सदा क्यों गुनगुनाता है।

महकती प्रेम की बगिया, गली हर रागिनी गाये,
यही आनंद है जीवन, सहज सबको नचाता है।