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भावनाएँ नीर-सी ठहरी नहीं / प्रेमलता त्रिपाठी
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भावनाएँ नीर-सी ठहरी नहीं।
बह चली वह राज थी गहरी नहीं।
दे सका जीवन भला जड़ भी जहाँ,
नीम छाया गाँव-सी शहरी नहीं।
प्यास खेतों की बुझा सकती घटा,
लौह-सी हो तप्त दोपहरी नहीं।
ज्ञान वापी डूबना होगा सरस,
बीज बोते जो कभी जहरी नहीं।
भानु किरणों से सदा होती सुबह,
दे उजाला अनुदिवस प्रहरी नहीं।
दीप अंतस में जले सौहार्द के,
भावना होती वहाँ बहरी नहीं।
प्रेम गाती गुनगुनाती ताल से,
लय सधे कब कंठ स्वर लहरी नहीं।