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मन को हरते हैं / प्रेमलता त्रिपाठी

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बरखा सुखदा सावन, मन को हरतें हैं।
सरसे वसुधा तपती, कण-कण सजते हैं।

देना अगली पीढ़ी को, अंश योग अपना,
कुछ भाव मर्म से मन, आँगन भरतें हैं।

निस्वार्थ प्रीति का कब, अलग धर्म होता,
छलता मनको स्वारथ, मानक घटतें हैं।

विश्वास भरा तन-मन, घात नहीं सहता,
मिले घात अपनों से, जीवित मरतें हैं।

मात-पिता गुरुजन यदि, तुष्ट हुए हमसे,
सुखमय हो जीवन भव, सागर तरतें हैं।

यही प्रेम परिभाषा, निर्मल तन मन हो,
सार यही जीवन हम, पावन करतें हैं।