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फिर सिखाना आ गया / प्रेमलता त्रिपाठी
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बढ़ती सर्जन की प्यास सीखें, फिर सिखाना आ गया।
आतुर खड़ा हर भाव को बस, अब मिलाना आ गया।
लिखकर सजायें गुनगुनायें ताल सुर संगम बने,
संगीत में ही दिन सधे, मन को रिझाना आ गया।
सपने सुहाने साथ चल अब, कर नवल संधान तू,
हर श्वांस सरगम-सी सजे हर, पल सजाना आ गया।
सौंपे वही संसार को, जो तीर्थ सम पावन लगे,
हम काव्य सुरसरि में बहे, हमको समाना आ गया।
रुचिकर बने हर छंद तो, जुड़ते हृदय के तार भी,
कविता कला के प्रेम से, मन को लुभाना आ गया।