यादें बीते लमहों की, हर पल मुझे रुलातीं हैं।
सुख-दुख की अपनी गाथा, आकर स्वयं सुनातीं हैं।
छिपा नहीं कुछ इनसे वह, ठौर जहाँ थमते आँसू
पत्थर कहते सब मुझको, बातें यही गलातीं है।
गुमसुम जलती बाती सम, श्वांस चले ज्यों अंगारे,
घिर-घिर आये सावन की, बदरी नैन भिगातीं हैं।
मुझसे रूठी बरसातें, दाहे जैसे कण-कण को,
सुधियाँ शीत बयारों सी, हौले से दुलरातीं हैं।
प्रेम ग्रन्थ के पृष्ठ खुले, बाँछें खिलती हैं मन की,
आशा की धूप झरोखे, आकर सदा जगातीं हैं।