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क्षितिज के पार / बीना रानी गुप्ता

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क्षितिज के पार
नील नभ
छिपा कौन उस लोक
फैला रहा आलोक
कितने ग्रह, नक्षत्र, चाँद
अनगिनत पिण्ड
दूधिया आकाशगंगाएँ
विराट अनन्त साम्राज्य
कोई है जो देखता रहता
सृष्टि के नव रूप रंग
नचाता नटवर
अपनी उंगलियों पर
हर पल सबको
सांध्य गगन
लहरों से तरंगायित सागर
योगी सा सूर्य कर रहा साधना
केसरिया स्वर्णिम रेख
समुद्र के पार
खींच रही लक्ष्मण रेखा
नभ व्याकुल
छूने को बैचेन
मादक स्वर्णिम रेख
झूमी उत्ताल तरंगे
अनन्त अनन्त से मिलन को आतुर
नक्षत्रों के दीपों से रिझा रहा व्योम
वह क्षितिज की रेख
हो गयी यूँ विलीन
ज्यों आत्मा परमात्मा में
द्वैत अद्वैत में
अभिन्न-अभेद।