भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शब्द और छन्द / स्वदेश भारती
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:39, 3 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वदेश भारती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं शब्द बनूँ और तुम छन्द
मैं बनूँ मधुप रस पराग रँजित
पँखुड़ियों में बन्द
तुम बनो रसराज बसन्त की कली
खिली-खिली, मधुमादित माधुर्य, मोद भरी निरानन्द
किन्तु समय होता बहुत बड़ा छली
जो पतझर बनकर अपने हाथों में
तूफ़ान, चक्रवात लेकर आता
हमारे सपने चूर-चूर कर जाता
और मैं शब्द बनते-बनते छन्द बन जाता हूँ ।
कोलकाता, 27 अप्रैल 2013