भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीता: एक नारी / तृतीय सर्ग / पृष्ठ 6 / प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:36, 5 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वंचित न था रनिवास भी आमोद, क्रीड़ा, हास से
था सकल अन्तःपुर भरा ऐश्वर्य और विलास से

निज परिजनों का स्नेह, सघनित प्यार प्रियतम का लिए
आनंद के हम नित्य ही सोपान चढ़ते थे नए

पर देख कुब्जा मंथरा को, विगत बातें चित्र सी
मानस पटल पर उभर आतीं वेधतीं उर भित्त सी

फिर नक्कटी विकृत सुपनखा सामने होती खड़ी
संस्पर्श से ही मात्र जिसके विकट विपदा आ पड़ी

जो राक्षसी कारण बनी मेरे दुसह दुःख भोग का
है आज भी पीछे पड़ी अविछिन्न उसकी नासिका

मारे गए सहचर सभी, वह किंतु पीछा कर रही
छितनार हो वह नाक मन में कालिमा है भर रही

चिपटी नखें, उसका सृगाली सदृश मुख फैला हुआ
श्रुति, नासिका से रक्त अविरल दीखता बहता हुआ

मैं सिहर जाती देख उसके बदन की वीभत्सता
भय-राहु हृदयाकाश में मन-चंद्रमा को लीलता