भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढोंग की दुविधा / प्रमोद कौंसवाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:53, 21 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल जनविजय |संग्रह=रूपिन-सूपिन / प्रमोद कौंसवाल }} पहा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहाड़ों के पीछे पहाड़ हैं

पहाड़ों के पीछे और बड़े पहाड़

उनके पीछे और भी बड़े

मुँह छुपाने के लिए

पहाड़ ही पहाड़


जब शरण न दे पहाड़

तब पहाड़ों की बनाई सुरंगे हैं

सुरंगे भर जाएंगी

तो गंगामाईजी कहाँ जाऊंगा

शहरों में ठहरे शराबियों के ठेये

गाँवों में टिंचरीख़ोर हैं

टी.वी. पर आपने देखा होगा

आश्रम भी मेरा उजड़ गया

अब कहाँ जाऊँ मैं

कोई भीख़ नहीं मांग रहा

जंगल जल नहीं रहे

ठेकेदार भी चुप हैं

अब मैं किस पर लिखूँ

मैंने मुँह छिपा लिया

सुरंग भी देख ली

इधर मेरे हाथ में बजता

कनस्तर है एक ख़ाली

उसकी आवाज़ भी

कोई सुन नहीं रहा।