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तकरीबन सत्तर साल हो गए होंगे / उदय प्रकाश

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अब से तकरीबन सत्तर साल हो गए होंगे
जब कहा जाता है कि गाँधी जी ने अपने अनुयायियों से कहीं कहा था
सोचो अपने समाज के आख़िरी आदमी के बारे में
करो जो उसके लिए तुम कर सकते हो
उसका चेहरा हर तुम्हारे कर्म में टँगा होना चाहिए तुम्हारी
आँख के सामने

अगर भविष्य की कोई सत्ता कभी यातना दे उस आख़िरी आदमी को
तो तुम भी वही करना जो मैंने किया है अँग्रेज़ों के साथ

आज हम सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते हैं कि
यह बात कहाँ कही गई होगी
किसी प्रार्थना सभा में या किसी राजनीतिक दल की किसी मीटिंग में
या पदयात्रा के दौरान थक कर किसी जगह पर बैठते हुए या
अपने अख़बार में लिखते हुए
लेकिन आज जब अभिलेखों को संरक्षित रखने की तकनीक इतनी विकसित है
हम आसानी से पा सकते हैं उसका सन्दर्भ
उसकी तारीख़ और जगह के साथ

बाद में, उन्नीस सौ अड़तालीस की घटना का ब्यौरा
हम सबको पता है

सबसे पहले मारा गया गाँधी को
और फिर शुरू हुआ लगातार मारने का सिलसिला

अभी तक हर रोज़ चल रही हैं सुनियोजित गोलियाँ
हर पल जारी हैं दुरभिसन्धियाँ

सत्तर साल तक समाज के आख़िरी आदमी की सारी हत्याओं का आँकड़ा कौन छुपा रहा है ?
कौन है जो कविता में रोक रहा है उसका वृत्तान्त ?

समकालीन संस्कृति में कहाँ छुपा है अपराधियों का वह एजेण्ट ?