भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीता: एक नारी / षष्टम सर्ग / पृष्ठ 3 / प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:18, 6 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सौंदर्य उनका देख मन में प्रेम ने अंकुर लिया
हो मुग्ध मेरे हृदय ने तत्क्षण समर्पण कर दिया

बीते भले वे पल मगर अनुभूति मिट पाई नहीं
वह प्रेम जीवित आज भी है हृदय अंतर में कहीं

हैं दूर मुझसे आज वे, सम्बन्ध पीड़ा का सही
मैं जानती अपने हृदय की भावनाओं को नहीं

उपकार ऋषिवर ने निरन्तर ही बहुत हम पर किया
मुझ सी अभागिन को यहाँ सम्मान औ’ आश्रय दिया

अवधेश नंदन पल रहे हैं यज्ञ पर, दुर्भाग्य है
पर गुरु मिले बाल्मीकि उनको यह बड़ा सौभाग्य है

ऋषि मुनि जनों का मनन बनता धर्म का आधार है
उस धर्म के आधार पर चलता जगत व्यवहार है

उद्धार करना मनुज का रहता सदा है मूल में
होती मनुजता ही प्रथम अनुकूल औ’ प्रतिकूल में

बनता नियम भी राज्य का आधार पर ही धर्म के
निर्देश रहते हैं नियम में नृप, प्रजा के कर्म के

हो राज्य पालन व्यवस्थित अभिप्राय बस रहता यही
रक्षित रहे अधिकार सबका, हनन हो पाए नहीं

है धर्म थिर पर नियम बनता राज्य के अनुसार है
पुनरावलोकन नियम का, सुप्रबंध का आधार है

विधि राज्य की करती ग्रहण है धर्म के बस स्थूल को
ऋषि मुनि करें चिंतन, समझते हैं सदा वे मूल को