भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुद को निहारें / प्रताप नारायण सिंह

Kavita Kosh से
Pratap Narayan Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:43, 7 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ
दर्पण में जरा
खुद को निहारें

एक्सरे सी बेधती पैनी नज़र वो
दूसरों की रूह तह जाती उतर जो

एक पल को
आओ हम
खुद में उतारें

वाह्य जग से हो विलग अन्तर भुवन में
क्या सही है, क्या गलत निरपेक्ष मन में

आज पल भर
आओ हम
कुछ तो विचारें

बंद कर अब दूसरों के दाग बीनना
अन्य के आँगन के खर-पतवार गिनना

आओ पहले
अपने
आँगन को बुहारें