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बलिया / महेन्द्र भटनागर

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(सन् 1942 की क्रांति का जन-गढ़)

यह जन-गढ़ है अविजित-दुर्दम, है खेल नहीं टकराना,
इसने न कभी अत्याचारों के आगे झुकना जाना !

हिमगिरि उच्च-शिखर-सा वसुधा पर अविचल आज़ाद खड़ा,
पशुबल की ‘गोरी’ सत्ता से क़दम-क़दम पर अड़ा-लड़ा !

मानवता का जीवित प्रतीक, आज़ादी हित मतवाला,
पड़ न सकेगा इसके मुख पर साम्राज्यवाद का ताला !

आज जवानों ने खोल दिए हैं दृढ़ सीने फ़ौलादी,
इनक़लाब के चरण थके कब, जब ज्वाला ही बरसा दी !

तुम आँधी बन बढ़ते जाओ, साहस से, उन्मुक्त-निडर,
तुम पर बंदी माँ की ठहरी है रक्षा की आस अमर !

शोषित जन-जन साथ तुम्हारे अगणित कंधों का बल,
शत-शत कंठोंका विजयी स्वर गूँज रहा निर्भय अविरल !

खेतों-खलिहानों में गिरता है जो शव-रक्त तुम्हारा,
उससे फूटेगा आज़ादी का नूतन कोंपल प्यारा !

आगामी सदियाँ समझेंगी उसको निज प्राणों की थाती,
रोज़ जलेगी उस धरती पर बलिदानों की स्मृति-बाती !
  1943