खेतों में / महेन्द्र भटनागर
(हरे-हरे खेतों से परिपूर्ण एक पहाड़ी ढाल। पास ही एक छोटी, सँकरी नदी बह रही है ; जिसके दोनों किनारों पर पेड़ों की सघन कतारें हैं। सामने के भरे हुए खेतों में छह-छह युवतियों की दोपंक्तियाँ हाथ में हँसिए लिए दिखाई देती हैं और पहली कतार एक स्वर में गाती है।)
पहली कतार —
आओ सखी, आओ सखी, आओ !
हरे हैं खेत
हरा है मन
भरा यौवन !
चलो री सखि !
शिखर पर चढ़
खुशी के ज़िन्दगी के,
आश के गाने
पवन के साथ मिलकर
दूर तक विस्तार कर स्वर प्राण का गाएँ ।
नयन में
फूलती-फलती धरा का स्वप्न भर लाएँ ।
दूसरी कतार —
आओ सखी, आओ सखी, आओ !
सुनो, ये खेत हमसे कह रहे हैं क्या !
हिलाकर शीश,
ये संकेत समझो दे रहे हैं क्या ?
हरे हैं ये
भरे हैं ये,
(एक पल रुक कर)
पर, न जाने क्यों डरे से ये ?
(खेतों में से अदृश्य पुरुष का स्वर)
सुनो, सुनो, सुनो,
सुनो, सुनो, सुनो,
चोर डाकुओं से सावधान !
कर रहे कि जो
हरे-भरे चमन मसान !
दैत्य से किसान
सावधान, सावधान !
(दोनों कतारों की स्त्रियाँ हँसिए को शत्रु पर प्रहार करने की मुद्रा में )
कौन है ? कौन है ? कौन है ?
अदृश्य पुरुष —
तमाम ये ज़मीनदार,
औ’ महाजनी प्रहार
टूटने को हो रहे तैयार ?
किसान—
पहला —:पर, हमें है भय नहीं इसका,
संगठित हैं हम !
दूसरा — ज़माने को बदलने के लिए !
तीसरा — पीड़न और अत्याचार का साम्राज्य
धरती पर सुलाने के लिए !
समवेत —
संगठित हैं हम !
संगठित हैं हम ! !
(यकायक खेत लहलहाने लगते हैं। पृष्ठभूमि में वृद्ध किसानों की छायाएँ नज़र आती हैं, जिनके हाथों में हँसिए, कुदाली, गेहूँ की बालें और झण्डे हैं।)
(पृष्ठभूमि का समवेत स्वर)
माना, भार गुलामी का बरसों ढोया,
पर, जाग नहीं क्या दाग़ पुराना धोया ?
अब तो हमने सोना बोया,
जीवन का दुख सारा खोया ।
1945