भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बापरयेड़ी सूनाण / राजेन्द्र देथा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:10, 28 नवम्बर 2019 का अवतरण
उणां दिनां री ओळ्यूं
आवतां ही अचाणचक
बापर ज्यावै कंठा तांइ
अबोली सी सूनाण,
अर हो ज्यावै अदीठ
सगळा आखर,
ठीक बियां ही जियां
बापरीजै सुनियाड
दिन ढल्या पाछे
गांव री उतरादी सीम में
औ म्हारा सोनहार!
जै सुण ज्यावै थारै
होंठा रै कुंपळा सू्ं
निकळतो एक हेलो,
तो स्यात बिखर ज्यावै
औ सूनाण ठीक बियां ही
जियां थळी मांय फिरते
नासेटू रै कंठा में पड़े
दीवड़ी रौ एक घूंट अर
हो ज्यावै कंठ निर्मळ।
घणौ'इ बखत कट ग्यौ
इण आमण-दूमणी सूनाण में
देख अब रूंख भी हरया हुग्या।
अब आ मिळ भी लेवां गांव
आळी तळाई माथे जठै आखै
गांव रा सगळा शक माफ़ हूया करै!