भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ मेरी संजीवनी ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:08, 2 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भोर किरन
अंक में जगी
अधमुँदे नयन
खिली कौमुदी
सिंचित हुआ मन
अधर रस
स्मित बन छलका
अंकशायिनी !
बिखरी थी अलकें
झुकी पलकें
रूप सिन्धु छलके
युग जी लिया
अधर मधु पिया
पी लिये सभी
अश्रु जग ने दिये
मिले दो पल
अधरों से अधर
युगों की प्यास
और हुई मुखर
नैनों से बहे
मदभरे निर्झर
स्वर्ग जी लिया
करके आचमन
लौटे हैं प्राण
ओ मेरी संजीवनी !
प्राण -वह्नि मोहिनी!
-0-