इश्तहार / कुमार विकल
इसे पढ़ो
इसे पढ़ने में कोई डर या ख़तरा नहीं है
यह तो एक सरकारी इश्तहार है
और आजकल सरकारी इश्तहार
दीवार पर चिपका कोई देवता या अवतार है
इसे पूजो !
इसमें कुछ संदेश हैं
- सूचनाएँ हैं
कुछ आँकड़े हैं
- योजनाएँ हैं
कुछ वायदे हैं
- घोषणाएँ हैं
इस देववाणी को पढ़ो
और दूसरों को पढ़कर सुनाओ—
कि देश कितनी तरक्की कर रहा है
कि दुनिया में हमारा रुतबा बढ़ रहा है
चीज़ों की कीमतें गिर रही हैं
और हमें विश्व बैंक से नया क़र्ज़ा मिल रहा है
इस क़र्ज़ से कई कारखाने लगाए जाएँगे
कारखानों से कई धंधे चलाए जाएँगे
उन धंधों से लाखों का लाभ होगा
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएँगे
उन कारख़ानों से और उद्योग चलाए जाएँगे
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएँगे
इस तरह लाभ—दर—लाभ के बाद
जो शुभ लाभ होगा
उससे ग़रीबों के लिए घर बनाए जाएँगे
उन पर उन्हीं की शान के झंडे लहराए जाएँगे
सभी ग़रीब एक आवाज़ से बोलें—
‘जय हिंद !’
ये हिंद साहब !
मगर इस देश का ग़रीब आदमी भी अजब तमाशा है
अपनी ही शान का इश्तहार पढ़ने से डरता है
और निरंतर निरक्षर होने का नाटक करता है
हाँ साहब, मैं ठीक कहता हूँ
अगर देश को ठीक दिशा में मोड़ना है तो
ग़रीब आदमी की इस नाटकीय मुद्रा को तोड़ना है
हमें उसे ज़बर्दस्ती इस दीवार के पास लाना है
और इस इश्तहार को पढ़वाना है.
आख़र यह सरकारी इश्तहार है
और आजकल सरकारी इश्तहार
दीवार पर चिपका
कोई देवता या अवतार है.