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मुखौटा / राजकिशोर सिंह

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चालीस वर्षों से
चुनाव देऽ-देऽ कर
मुझे भी चढ़ी इसकी ऽुमारी
पर थी
ऐसी कोई करतूत नहीं कि
जनमत मेरे पक्ष में हो
तब एक बात आयी
मेरे दिमाग में कि
असली चेहरे को
छिपाया जाय
इस समाज से
तब पिफर
मुऽौटा ऽरीदने गया
मुऽौटे की दूकान पर
दिऽाया उसने
तरह-तरह का मुऽौटा
सामाजिक इंसान का
कोई था शिक्षक का
कोई था चित्राकार का
कोई था चिकित्सक का
तो कोई था दलाल दरबार का
पसंद नहीं आया
एक भी मुऽौटा
क्योंकि
कोई था छोटा
कोई था ऽोटा
आया, एक मुऽौटा पसंद
था जो कापफी तगड़ा
और बुलंद
लिया उसी को पहन-2
और
मैंने चुनाव की यात्रा की गहन
अब मेरा अपना नहीं था चेहरा
दूसरों का लिया अजूबा सेहरा
जिसने देऽा मुझे
कापफी भरमाया, घबराया
और थर्राया
क्षण भर में
सभी घुस गए घर में
जिध्र जाता, उध्र मचता
एक अजीब शोर
कानों कान पफुसपफुसाते
लोग सब, चारों ओर
कोई कहता
चुनाव प्रचार नहीं
हाहाकार है
यह नेता नहीं
जाना माना ऽूंऽार है
परन्तु
वोटर जब आता सामने
तो डरी आवाज में
गिड़गिड़ाते अंदाज में
कहता ‘नेताजी’
आपका सत्कार हैै
आपके काम से
आपके नाम से
दूँगा मैं आपको ही अपना मत
क्योंकि हूँ आपसे कापफी सहमत
एक के बाद
एक-एक ने यही कहा
इस बार चुनाव का
गरम माहौल रहा
चुनाव का प्रचार होता
जब दिन-रात
लोगों को पहुंच रहा था
दिल पर कापफी आघात
अन्त में चुनाव का
परिणाम निकला तो
हुई मेरी जीत
तब मैंने पफेंका
भारी-भरकम मुऽौटा
मुऽौटा देऽकर
हुआ कापफी लज्जित
क्योंकि मुऽौटा था
उसी क्षेत्रा के दुर्दांत
डाकू और हत्यारा का
जो रत्तफ चूसता था
अनाथ और बेचारों का
जिससे लोग डरते थे
भय से मरते थे।