भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जेठ की तपती धूप / राजकिशोर सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:29, 7 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजकिशोर सिंह |अनुवादक= |संग्रह=श...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी बार जेठ की
तपती ध्ूप को देऽा
इतनी गर्मी कभी न थी
कितनी बार लोगों को
जुदा होते पाया
इतनी नर्मी कभी न थी
होठों पे तेरा नाम
पलकों में तेरा चेहरा
कभी मिटता नहीं है
श्वासों में तुम्हारी
यादों का स्पंदन
कभी हटता नहीं है
दिल मेरा नहीं माना
छत के ऊपर जाकर देऽा
क्या दूर से दिऽता भी है
नजरें तुम पर नहीं पड़ी
निराश हुआ नाऽुश हुआ
अब नजरें उठती नहीं है
तो अब आप ही बताइये
मैं क्या करूँ कैसे करूँ
आगे कुछ दिऽता नहीं है
अपने मासूम दिल पर मैं।