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तुझसे नेह लगाया / कीर्ति चौधरी

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क्या पाया

तुझसे जो नेह लगाया

सुख-दु:ख सब कह डाला

मन में कोई भेद न पाला

क्या पाया पर

खड़ा रह गया हाथ पसारे

झूठे होकर मंद पड़े

वे उज्जवल तारे प्रेम-प्रीति के


आह ! देह का धर्म अकेला मैं ही झेलूँ?


यह कैसी दूरी

केसी मेरी मजबूरी

देख रहा हूँ

छू सकता हूँ

आँखों ही आँखों तुझको पी सकता हूँ

सुख पाता हूँ


उठा हाथ से दु:ख क्यों तुझको बाँट न पाया

मुझे नियति ने क्यों इतना असहाय बनाया

क्या पाया यदि मैंने तुझसे नेह लगाया?


तू भी किसी डाल पर होता खिले फूल-सा

तू भी सकला जाता माथा

गंध बसे मलयानिल के चंचल दुकूल-सा

क्यों मैंने तुझसे प्रत्याशा ही की होती?


संग-संग कितने दिवस बिताए

सुख-दु:ख के अनगिनती चित्र बनाए रँग-रँग

आह ! दु:ख की एक मार ने

सब बिसराया


क्या पाया यदि मैंने तुझसे नेह लगाया ?