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वेश्या जीवन / एस. मनोज
Kavita Kosh से
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वैश्वीकरण में बदल रही है दुनिया
रोज रोज
लेकिन मेरे लिए ?
ठहरी हुई है यह
मैं दिन के उजाले में
समाज से बहिष्कृत
आजीविका के लिए मोहताज
अछूतों से भी अछूत।
दिन में जो मुंह चिढ़ाते
रात में वही तलवे सहलाते
यह सब तब भी था
आज भी है
लेकिन
वैश्वीकरण ने बदली है सोच
तब लोग आते थे मेरे पास
रहते नहीं थे मेरे साथ
अब बहुत सारे घन पशु
आते हैं मेरे पास
ले जाते हैं किसी गुप्ता आवास
बनाते हैं कई कई
अबलाओं को वेश्या
तब मेरा घर था
गांव के सीमान पर
अब मेरा घर है
ऐसे ही कई
धन पशुओं के ठिकानों पर
वैश्वीकरण ने बनाए हैं
नये-नये वेश्यालय
कई उत्तर आधुनिकतावादी के घर को
लेकिन नहीं बदल सका है वह
हम वेश्याओं के जीवन को