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दोषी कौन / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

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उठो-उठो अब तो जागो
खुद को झकझोर के पूछो न
क्या दोषी केवल वो ही है
जो सत्तारुढ़ हैं, बोलो न?

थी ’’राजतंत्र‘‘ की मर्यादा
तब राम प्रजा के मान धरे
अब ’’प्रजातंत्र‘‘ की साख कहाँ
हम जन-जन कौड़ी में बिखरे...!

खो दिये धैर्य और धर्म सभी
मानवता घुटने टेक रही
हुआ राजनीति का चीरहरण
नैतिकता छाती पीट रही...

माँ भारती क्या तू ध्वज में छिपी
या छिपी है किसी रसातल में...?
आ देख-देख कई द्रोही छिपे
तेरे तीन रंग के आँचल में....

चरमरा उठा है सिंहासन
इस चार धर्म की पाया पर
कई विषैले कील ठोक दिए
राम-रहीम की काया पर...

अब न धर्म के रखवाले
न देशभक्ति के भाव रहे
वो सिंहासन के सौदागर
वही चाहे, न सद्भाव रहे...

कब तक धर्मों के नाम मिटें
बनकर कठपुतली डोलो ना
अब आत्म जागृति जोत जला
ज्योतिर्मय नेत्र तो खोलो ना...