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नियंत्रण / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

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स्नेह गंगा बाँध देकर, क्यूँ किया अवरुद्ध है...?
प्रबल प्रेम प्रवाह के प्रति, क्यूँ खड़ा तू विरुद्ध है...?

है असंभव, हो समाहित... कूप में सागर कहीं?
लाचार है संकल्प और परिवेश से भी क्षुब्ध है...

मूढ़-मति, इतना समझ जब विपुल भाव समाएगा
प्रताड़ना को कर उपेक्षित, स्वयं ख़ड़ा हो जाएगा...

संवेदनाएं वेग से सब कुछ बहा ले जाएंगी
टूटेंगे जब बाँध विह्वल, फिर संभल न पाएगा...

अहो-भाग्य... विरलों में किसी, हिय प्रीत की सरिता बहे
निष्ठुर बना क्यूँ रेतीली, मरुभूमि को दरिया कहे...

जब ताप कुंठा में उबलकर बूँद तक जल जाएगा
अंतःकरण को शांत कर गंगा के तट सुख पाएगा...