भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उर के अंदर देखो तो / दीनानाथ सुमित्र

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:41, 19 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीनानाथ सुमित्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाति-धर्म से ऊपर उठ कर देखो तो
झाँक के अपने उर के अंदर देखो तो
 
मंजिल तेरी दूर अगर है तेज चलो
अगर अँधेरा है तो सूरज बनो, जलो
स्वप्न सुहाना हर- पल सुंदर देखो तो
जाति-धर्म से ऊपर उठ कर देखो तो
झाँक के अपने उर के अंदर देखो तो
 
दुश्मन को पहचानो, उससे जंग करो
जितने भी हैं मित्र सभी को संग करो
कल आने वाला है बेहतर देखो तो
जाति-धर्म से ऊपर उठ कर देखो तो
झाँक के अपने उर के अंदर देखो तो
 
कितनी सदियाँ बीत गईं धीरे-धीरे
मुर्दे ही जलते आये गंगा-तीरे
जीवन पर कुछ आज सोचकर देखो तोे
जाति-धर्म से ऊपर उठ कर देखो तो
झाँक के अपने उर के अंदर देखो तो