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बाबूजी / गरिमा सक्सेना
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दफ्तर के चक्कर काट-काट
टेंशन में रहते बाबूजी
है पता नहीं कुछ फाइल का
हो गए रिटायर, साल हुआ
जो हाथ न आये विक्रम के
पेंशन ऐसा बैताल हुआ
नित नये अड़ंगे, दुतकारें
क्या-क्या ना सहते बाबूजी
जो सदा सिखायी खुद्दारी
उससे अब मुँह मोड़ें कैसे
है बिना घूस के हल मुश्किल
लेकिन सत्पथ छोड़ें कैसे
नख से शिख तक है भ्रष्ट तंत्र
रो-रो कर कहते बाबूजी
हैं ब्लैक होल से ‘ब्लॉक’ बने
अर्जियाँ जहाँ पर सिसक रहीं
कुर्सी-कुर्सी का चक्रवात
हैं गोल-गोल बस भटक रहीं
है दुक्ख डायनामाइट-सा
पर्वत-सा ढहते बाबूजी