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मुन्ना के मुक्तक-3 / मुन्ना पाण्डेय 'बनारसी'

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बचपन माँ के घर में बीता सखियों संग ठिठोली में।
क़िस्मत को मंजूर नहीं था सुख हो उसकी झोली में।
हत्यारे लोभी दहेज के दानव अत्याचारी थे-
अपनों ने ही आग लगा दी अरमानों की डोली में।

जग को कहते हो बाबा जी जोगी वाला फेरा है।
पर सच्चाई यह भी है कि दीपक तले अँधेरा है।
कैसे जग को झूठा कह दूँ, तब जगदीश भी झूठा है-
मूर्च्छा टूटे तब दिखता है कितना सुखद सवेरा है।

फूलों का रस निचोड़ करके इत्र बिक गया।
कल तक हमारे साथ था वह मित्र बिक गया।
मुश्किल नहीं है कुछ भी सियासत में दोस्तो-
इंसानियत कहाँ अगर चरित्र बिक गया।

किसी का लाल खोता है तो कोई माँग धोती है।
कहीं राखी लिए बहना खड़ी चुपचाप रोती है।
जवानी जान तक बलिदान करते देश पर सैनिक-
उन्हीं की वीरता पर क्यों सियासत आज होती है।

हरे भरे वह विटप सिसकते, जिनकी कटती डाली है।
मेरी कविता चौराहे पर, बनकर खड़ी सवाली है।
सूनी माँग, बिलखती बेटी, बूढी माँ, शव बेटे का-
गाँवों में कोहराम मचा है, शहरों में दीवाली है।

बिन कविता के किसके आगे रक्खूँ अपने मन की बात।
कविता बिन दिन सूने लगते कविता के बिन सूनी रात।
भाव जगत में एकाकी बन जब विचरण करता हूँ मैं-
नैनों से झरने लगती है वह बनकर रिमझिम बरसात।

अच्छा नहीं होता है बुरा दौर किसी का।
क्यों छीनते हो यार मुँह का कौर किसी का।
मालिक ने जो दिया है उसका शुक्रिया करो-
वाजिब नहीं है मारना हक और किसी का।