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अपने ज़िले की मिट्टी से / फणीश्वर नाथ रेणु

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कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी

इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ

तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से

दरिया औ' दयारों से

सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से

कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से?

कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का?


तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित

सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ

उठाकर चंद ढेले

उठाकर धूल मुट्ठी-भर

कि मिट्टी जी रही है तो!


बला से जलजला आए

बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ

अगर ज़िंदी रही तू

फिर न परवाह है किसी की

नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी'

नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या?

घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो!

सुनाता हूँ नहीं--

गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो!

सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं

सिर्फ़ ज़िंदी रही तू

और हमने सब किया अब तक!


सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही

बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा

कमीनी हरक़तों को रोक लेगा

कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी

(इसी से डर रहा हूँ!)

कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी

शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की

'भगत'