भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मटिया के बोल / सुरेन्द्र प्रसाद 'तरुण'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:41, 26 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र प्रसाद 'तरुण' |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुन सकय तो सुन ले भइया, मटिया के बोल रे
दिने दुपहरिया रात अधरतिया
याद मे जलहय सकल प्राण कि दीप बतिया
आसरा अथोर ले, प्यार से विभोर हो
गा रहल बजा रहल जिनगी के ढ़ोल रे ।
दूर चान है बहुत, वेदना के पुंज मे
गढ़ रहल कवि विधान चेतना के कुंज मे
बूढ़ या जवान या नया-नया किशोर हो
पा रहल सजा रहल विडम्बना के गोल रे ।
चार दिन हय जिन्दगी के, जिन्दगी
अंत मे कर हय सभे मट्टिया के वन्दगी
ठोरवा पर हंसी चाहे अंखियन मे लोर हो
सो रहल कि धो रहल, जिन्दगी के मोल रे ।
आगू मे सुनसान भइया पाछू मे तूफान हय
पंछी थर थरथरा रहल कि पंख मे थकान हय
नइया मझधार चाहे ले-ले धार कोर हो
सो रहल कि जग रहल नैया डांवाडोल रे ।