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घरे में अजनबी / मुनेश्वर ‘शमन’

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बड़ परिचित हे दर-दीवार ई, हम्मर घर के।
मगर अजनबी-सन अप्पन के बीच पड़ल हूँ।।
घर ई, अपने ही तो घर हे, ओहे पुराना
ओसरा भर के ओलती के उजड़ल चाँचरी हे।
अन्हड़-पानी- धूप के खाके मार ढेर दिन-
देह देहरी के झड़ गेलय, बचल ठठरी हे।
जरजरता में भी लगाय ई केतना अप्पन
एहे अँगनमा में हम खेलूलूँ, पलल-बढ़ल हूँ।
 
मुदा फासला से ताकय पहचानल अँखियन,
एकरा-हमरा बीच जनमलय कइसन दूरी।
पसरल हे जे आसपास परिवेश अपरिचित,
जीअऽ हूँ एह में, जीअय के हे मजबूरी।
खोज रहल हूँ कब से हेराल अपनापन के,
सायत कि मिलिये जाय, ई जिद पर अभी अड़ल हूँ।।

रोज भिड़इते रहलूँ अभाव से कुरीत से,
हार-हार के रावन हार सकल नत्र अब तक।
स्थापित जीवन के मूल्य के रच्छा खातिर,
लड़ते जाय के हे, बाकी दम-खम हे जब तक।
आज नञ तो कल कहियों, सत जीत्ततय जरुरे,
एहे आस-बिसवास लेके तऽ जंग लड़ल हूँ।।