मौन रो रही कोयल / संजीव वर्मा ‘सलिल’
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव
मौन रो रही कोयल,
कागा हँसकर बोले काँव
संबंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलम
बद को अच्छा माने दुनिया
कहे बुरा बदनाम
ठंडक देती धूप
तप रही बेहद कबसे छाँव
सद्भावों की सती नहीं है,
राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य
चुन लिया असत मिथ्या
सत्ता शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें विधाता वाम
भूखे मरने शहर जा रहे
नित ही अपने गाँव
'सलिल' समय पर
न्याय न मिलता,
देर करे अंधेर
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी
पल में लेकर दाम
और कह रहे हैं संसद में
'भला करेंगे राम.'
अपने हाथों तोड़-खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?