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पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं / संजीव वर्मा ‘सलिल’
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पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली
छोड़ निज जड़ बढ़ रही हैं
नए मानक गढ़ रही हैं
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों सी चढ़ रही हैं
चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की कंगाली
नेह-नाते हैं पराये
स्वार्थ-सौदे नगद भाये
फेंककर तुलसी घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये
तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट से दुनाली
भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की कीमत बहुत है
रूह की है फटेहाली