भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़ैदी / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:03, 29 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= विहान / महेन्द्र भटनागर }} <poem> :...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रात्रि के नीरव प्रहर में
बज उठीं कड़ियाँ,
जब कठिन
घड़ियाँ बिताना हो रहा था
याद सहसा आ गयी —
खामोश ऐसी रात में ही
एक दिन
वे बज उठी थीं
प्रिय तुम्हारे
पैर की पायल !

आज तो निस्तब्ध काली रात में
दृढ़ लौह-कड़ियों-सीखचों के बीच
रह-रह खनखनाती बेड़ियाँ निर्मम
और बीते जा रहे
भावों-विचारों में
थके-उलझे हुए
कुछ क्षण !
1943