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क़ैदी / महेन्द्र भटनागर
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रात्रि के नीरव प्रहर में
बज उठीं कड़ियाँ,
जब कठिन
घड़ियाँ बिताना हो रहा था
याद सहसा आ गयी —
खामोश ऐसी रात में ही
एक दिन
वे बज उठी थीं
प्रिय तुम्हारे
पैर की पायल !
आज तो निस्तब्ध काली रात में
दृढ़ लौह-कड़ियों-सीखचों के बीच
रह-रह खनखनाती बेड़ियाँ निर्मम
और बीते जा रहे
भावों-विचारों में
थके-उलझे हुए
कुछ क्षण !
1943