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सुख-दुख / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
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सुख-दुख तो मानव-जीवन में बारी-बारी से आते हैं !
जो कम या कुछ अधिक क्षणों को मानव-मन पर छा जाते हैं !
मानव-जीवन के पथ पर तो संघर्ष निरंतर होते हैं,
पर, गौरव उनका ही है जो किंचित धैर्य नहीं खोते हैं !
यह ज्ञात सभी को होता है, जीवन में दुख की ज्वाला है,
यह भास सभी को होता है, जीवन मधु-रस का प्याला है !
हैं सुख की उन्मुक्त तरंगें, तो दुख की भी भारी कड़ियाँ,
ऊँचे-ऊँचे महल कहीं तो, हैं पास वहीं ही झोंपड़ियाँ !
कितनी विपदाओं के झोंके आते और चले जाते हैं !
कितने ही सुख के मधु-सपने भी तो फिर आते-जाते हैं !
क्या छंदों में बाँध सकोगे जन-जन की मूक-व्यथाओं को ?
औ’ सुख-सागर में उद्वेलित प्रतिपल पर नव-नव भावों को ?
1941