भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिजन / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:09, 29 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= विहान / महेन्द्र भटनागर }} <poem> न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


नगर के एक सिरे पर हरिजन-बस्ती। सीकों की अनेक झाडू और टोकरियाँ दरवाज़ों के आसपास पड़ी हैं।गरमी में समस्त वायुमंडल तप रहा है। कुछ हरिजन अपनी कुटियों से बाहर निकलकर पेड़ के नीचे बैठे हैं, जिनमें औरतें, बुड्ढ़े-बालक व जवान सभी हैं। शहर
में आज इनकी हड़ताल है। आज कुचले हुए सिरों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी है :

एक युवक —
(पड़ा-पड़ा गुनगुनाता है)
बीत चुके हैं चार दिवस
हम गये नहीं अपने कामों पर
दृष्टि नगर के जन-जन की
हम पर ही आज लगी है,
क्योंकि नहीं है काम हमारा
औरों के बलबूते !
वर्तमान जीवन के
अभिन्न अंग बने हम,
आज हमारे बिना हुआ
रहना सभ्य मनुजता का
कठिन
असम्भव !
युवक की माँ —
रहने दे रे
कुछ न चलेगी तेरी
यों ही कहता फिरता है,
पढ़ आज गया जो थोड़ा-सा
उसके बल
महल हवाई गढ़ता रहता है !
वाचाल ! तुझे क्या पता नहीं
तेरे पुरखे सारे
इनके ही सूखे टुकड़ों पर
पलते आये हैं
पलते जाएंगे !
क्यों कब्र खोदना चाह रहा अपनी
सब की !
युवक —
तू क्या जाने जग की आँधी
है साथ हमारे वह गांधी
जिससे ‘गोरे’ तक डरते हैं
अत्याचार नहीं करते हैं
जिसके पीछे हिन्दुस्तान
करोड़ों इंसान !
युवक का दादा —
पर, यह कह देने से
क्या होता है ?
हम तो हैं अब भी
दबे, दुखी औ’ दीन पतित !
बाबू लोगों की गाली के
गुस्से के
एकमात्र इंसान
क्या ?
ना रे इंसान
कहाँ इंसान ?
कुत्तों से भी बदतर !
युवक —
यह कैसे कहते हो, दादा !
चाल ज़माना चलता जाता
हम भी क़दम-क़दम बढ़ते जाते
मंदिर सारे
आज हमारे लिए खुले हैं !
दादा —
मंदिर आज हमारे लिए खुले हैं
तो क्या उनको लेकर चाटें ?
उनसे न मिलेगी
रहने का़बिल आज़ादी !
भगवान हमारा यदि साथी होता
तो क्या इस जीवन से
पड़ता पाला ?
मंदिर तो धनिकों के
ऐयाशी के अड्डे हैं !
तू क्या जाने !
युवक —
बस, चाह रहा मैं यह ही तो
समझ सकें हम इन सबका
नंगा रूप
कि बाहर आएँ
युग-युग के बंदी अंध-कूप से
फिर कौन बिगाड़ सकेगा अपना
(कुछ रुक कर)
ऊपर उठ जाएंगे,
नव-जीवन पा जाएंगे !
दूसरा युवक —
देखो, सचमुच
कितना बदला आज ज़माना,
चारों ओर सहानुभूति का
और मदद का
धन से, तन से, मन से
मचा हुआ है आन्दोलन !
दादा —
ये पंडित पोथीवाले
लाल तिलक वाले
पगड़ी वाले लाला लोग
कि जो रोज़ लगाते मोहन-भोग
आज हमारे जानी दुश्मन !
इनने ही बरबाद किया है जीवन !
माँ —
उफ़, न कहो
है लंबी दर्द भरी
युग-युग की करुण कहानी !
क्या होता याद किये से
बीती बातें व्यर्थ-पुरानी !

पाश्र्व से —
उठो ! पीड़ित, तिरस्कृत
आज युग-युग के सभी मानव,
जगाता है तुम्हें
नूतन जगत का अब नया यौवन !
अमर हो क्रांति
मानव-मुक्ति की नव-क्रांति !
1942