Last modified on 24 जनवरी 2020, at 21:52

ये धुंधलका है, काफी है / सरोज कुमार

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:52, 24 जनवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज कुमार |अनुवादक= |संग्रह=शब्द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उतने ही दिखो और देखो
जिसमे जिन्दगी निरापद चली चले,
रोशनी की और जरूरत नहीं है
ये जो धुँधलका है
काफी है!

अपनी सुनिश्चित मौत को
अफवाहे मानते रहने में
जिन्दगी का लुत्फ है!

रोशनी संभावनाओं के माँड़ने लील कर
जो आँगन लिपती है
उस पर चलने से पैर जलते हैं!

ईश्वर कभी नहीं मिला
पंडितों को रोशनी में
वह रीझता रहा
फकीरों पर
गुफाओं-बियाबानों में!

रोशनी से झकाझक
दोपहर कैसी खाली-खाली है,
पर सुबह कितनी रसभरी!
शाम कितनी लुभावनी!
आँखें बंद करने पर
जो दिखता है
वहाँ नहीं जा पाती
दूरबीन की आँख!

तुम फिर उड़ रहे हो
ऊँचे और ऊँचे
रोशनी के शिकार को,
वह फिर तुम्हारे पंख
जला डालेगी!
जिन्दगी एक पहेली है
रोशनी एक उत्तर है,
पहेली का मजा
उत्तर की मौजूदगी में नहीं,
उसकी अनबूझ में छुपा है!

वह जो धुँधली-धुँधली
दिखाई दे रही है
वह जिन्दगी है
और वह जो एकदम साफ है
मौत है!