भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एकाकीपन / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:21, 29 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर }} <poem> ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


यह आज अकेलेपन पर तो
मन अकुला-अकुला आता है !

सुनसान थका देता मन को,
एकांत शिथिल करता तन को,
अब और नहीं एकाकीपन
जीवन के साथ रहे प्रतिक्षण,
यह उलझा-उलझा-सा यौवन
अब तो भार बना जाता है !

कब तक सूनी राह रहेगी ?
कब तक प्यासी चाह रहेगी ?
इतनी काली सघन निशा में
चलना कब तक एक दिशा में ?
यह रुका हुआ जीवन, उर में
भाव निराशा के लाता है !
1949