एक शौर्य / निशा माथुर
मैं खुद मिटटी राजस्थान की मेरा कण-कण है महामाया,
पूर्वजन्म का कोई पुण्य है मेरा, जो इस धरा पर जन्म पाया।
सिन्दूर सजाती सुबह यहाँ देखी रूप लुटाती फिर संध्या,
एक एक दुर्ग का शिल्प सलोना और मरूभूमि की सभ्या।
भोर सुहानी घर-घर मीरा गाती, पौरूष प्रताप-सा यूं गरजे,
मेरी धरती के वह नौनिहाल, कैसे रेतीली सीमाओं पर बरसे।
दोहे-सोरठे, दादू और रैदास सरीखे, कहीं अजमल अवतारी,
दुर्गादास और पन्ना की स्वामी भक्ति से, मेरी धरती महतारी।
पीथल, भामाशाह, मन्ना से फिर हम सब कैसे पानीदार हुये,
इन सब वतनपरस्तों के तो हम पल-पल के कर्जदार हुये।
इकतारे, अलगोजे, बंसी, ढोलक और कंही पर चंग की थाप,
तीज, गणगौर पर रंगीली गौरी और ईसर की फाग पर अलाप।
खङी खेत में फसलें धानी, चातक, मोर, पपीहा पीहू-पीहू बोले,
बातें हो गयी बरस पुरानी, आज भी ढोला-मारू का दिल डोले।
मैं मिटटी राजस्थान की मुझमें भी ऐसा हो त्याग, प्रेम, सौन्दर्य
मेरी काया की मिटटी धोरों में संवरे, मैं भी कहाऊँ एक शौर्य