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मैं उङ सकती हूं / निशा माथुर

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क्यूं लोग मुझे कहते हैं कि मैं क्या हूँ?
क्यूं लोग मुझे कहते हैं कि मैं क्या कर सकती हूँ?

मैं उङ सकती हूँ, देखो... और नाप भी सकती हूँ,
सात परतों के भी पार उस क्षितिज के फलक को,
अंजुरी में ला सकती हूँ, उस चांद की ललक को।

अनदेखी सलाखें मुझे ही क्यों जकङती हैं!
बैसाखिया सहारों की मुझे ही क्यों पकङनी हैं!
मैं उङ सकती हूँ, देखो और बदल भी सकती हूँ
अपने आत्मविश्वास से हवाओं के रूख को,
मुझ पर हंसने वाले, जुमले बोलते मुखो को।

मैं उङ सकती हूँ, देखो... और तोङ सकती हूँ
मुझको जन्म लेने से रोकने वाली हर हदों को,
इन रिवाजो, परम्पराओं या फिर सरहदों को।

मैं उङ सकती हूँ, देखो... और संभाल सकती हूँ,
अपनों के प्यार, विश्वास और मर्यादाओं को,
घर और घर के बाहर की सारी जिम्मेदारियों को।

मैं उङ सकती हूँ, देखो... और मार सकती हूँ
मुझको नारी शब्द से छलने वाले उस डर को,
भेदती निगाहों से जिस्म को छूते हर शर को,

मैं उङ सकती हूँ, देखो... और उङ सकती हूँ
उन्मुक्त पतंग की तरह, यायावर हर बाधा को कर पार,
अपनी खुद की पहचान बनाती, खुद को कर तैयार।