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बहकता शरद / निशा माथुर

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महक महक मालती सा, हिचकोले जिया
कनखियों से देखे, हौले-हौले बोले पिया
चंचल चुलबुली चांदनी, आयी मेरे आंगन
प्रिय! बहकते शरद ने, यूं मादक किया!

सुरभित सेंवती, मौन-मौन महका दिया
कातिक रात है, बावरा मन मुस्का दिया
रूप दपर्ण में संवारू, उम्र का बांकपन
हंसनी-सा उङे, कमसिन खुनके हिया!

बटोही-सी ठहरी, भोर ने शुभागम दिया
खिसकती दोपहरी ने भी, अनमना किया
हंसती धुंध लपेटे है, कस कर सनन सन
शिरा शिरा तङके है, यूं धङके है जिया!

मलय समीर ने ठिठुरन, कंपकपा दिया
पुष्प पल्लिवित सुरभि, ने गहमा किया
पांव भारी शरद के, चंचल ठुनक ठुन
ऋतुओं की ऋचा, कैसे भङके है हिया!

देह देह सिहरात, मधुमास इठलाये हिया
उङी अलकें कान्धे पे, झुमका बोले पिया
पलकें खोले हौले हौले, पांखुरी अनमन
शरद की चांद खुमारी, महके है जिया!
चंचल चुलबुली चांदनी आयी मेरे आंगन
प्रिय! बहकते शरद ने यूं मादक किया!