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रत्नात्रयी / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
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पति पा हुलसी-सुत श्री तुलसी
तू लसी रतना रति-सी रतनारी।
भव भाव विभाव भगे क्षण में
क्षण भक्ति स्वरूप हुई सुकुमारि।
तव त्याग-कथा महि-पट्ट खँची
सुरची रुचि राशि विरंचि विचारी।
वनिता बनि तात! प्रभात बनी
भनिता कविता कवि की किलकारी॥
अविकारी अँन्हारी निशा पसरी
पथ सूझत नाहीं न राह दिखे रे।
घटवार न घाट घटी न घटा
न घटी जमुना जल राशि बिखेरे।
मृत देह सनेह बनी तरणी
अहि-रज्जु गवाक्ष प्रिया लखि टेरे।
अनुराग-तड़ाग उगी रतना-छवि
श्री तुलसी-उर छन्द लिखे रे॥
भव प्रीति विमोचन का क्षण जान,
हुईं अति रुष्ट प्रिया क्षण में।
घट पूर्ण लबालब नेह भरा
पद-पद्म प्रहार किया व्रण में।
करका उर घाव विकार भगा
अनुराग विकल्प न था प्रण में।
रसना रस राशि रसायन धार
लगी ढरकाने रसा कण में॥