भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे / सूरदास

Kavita Kosh से
59.94.112.80 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 19:15, 11 अगस्त 2006 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: सूरदास

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे।

जैसे उड़ि जहाज की पंछि, फिरि जहाज पर आवै॥

कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।

परम गंग को छाँड़ि पियसो, दुरमति कूप खनावै॥

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै।

'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥