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कितनी याद तुम्हारी आयी / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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मेरे रोम-रोम से पूछो, कितनी याद तुम्हारी आई।
सूरज के संग आँख खुल गई,
सभी दिखे पर तुम्हीं नहीं,
किसका अभिनन्दन मैं करता,
सन्मुख मेरे मीत नहीं,
दिन चढ़ गया शीश पर लेकिन,
लगता सुबह नहीं आई,
दिनकर की किरणों से पूछो,
कितनी याद तुम्हारी आयी।

सारा दिन मैं भटका जैसे,
कोई भूल गया हो राहें,
छोड़ गई यादों की साया,
सुना तन और सुनी बाहें,
जेठ दुपहरी-सी पीड़ा,
मन आंगन में घुसती जाये,
जलते हुए पलाश से पूछो,
कितनी याद तुम्हारी आयी।

सतत्...
दूर कहीं बिरहा स्वर गूँजे,
प्रियतम कहाँ कोई बतलाए,
सारी खुशियाँ साथ उसी के,
मेरे साथ तो केवल आंहे,
सूरज को घर तक पहुँचा कर,
देहरी पर संध्या जब आयी,
हर जलते दीपक से पूछो,
कितनी याद तुम्हारी आयी।

हर घर में झिलमिल उजियारा,
आश के दिल में अन्धकार है,
लता पेड़ के साथ सो गई,
सागर में भी उठा ज्वार है,
जब भी किसी युगल को देखा,
मेरी आंखे भर-भर आई,
इन बहते नैनों से पूछो,
कितनी याद तुम्हारी आयी॥