भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुदा के बन्दों की / हरेराम बाजपेयी 'आश'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:30, 13 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरेराम बाजपेयी 'आश' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
धर्म के नाम पर लड़ना-लड़ाना, महज फ़िरका परस्ती है,
ऐसे लोगों की कहीं कोई औकात नहीं होती है।
टूट कर बिखर सकती हैं ये नुमाइशी भेंटे,
सद्भाव से बढ़कर कोई सौगात नहीं होती।
लौटना ही है तो इन्सानियत को लुटाओ जीभर,
ये तो दौलत है जो कभी समाप्त नहीं होती है,
गरीबों के रहनुमाओं को न पुकारो हिन्दू या मूसलमाँ कहकर,
खुदा के बंन्दों की कोई जात नहीं होती है॥