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हाय अलीगढ़ / नागार्जुन

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हाय, अलीगढ़!

हाय, अलीगढ़!

बोल, बोल, तू ये कैसे दंगे हैं

हाय, अलीगढ़!

हाय, अलीगढ़!

शान्ति चाहते, सभी रहम के भिखमंगे हैं

सच बतलाऊँ?

मुझको तो लगता है, प्यारे,

हुए इकट्ठे इत्तिफ़ाक से, सारे हो नंगे हैं

सच बतलाऊँ?

तेरे उर के दुख-दरपन में

हुए उजागर

सब कोढ़ी-भिखमंगे हैं

फ़िकर पड़ी, बस, अपनी-अपनी

बड़े बोल हैं

ढमक ढोल हैं

पाँच स्वार्थ हैं पाँच दलों के

हदें न दिखतीं कुटिल चालाकी

ओर-छोर दिखते न छलों के

बत्तिस-चौंसठ मनसूबे हैं आठ दलों के


(रचनाकाल : 1978)