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उम्र का पत्थर / इरेन्द्र बबुअवा
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हर शाम जब लौटता हूँ वापस कमरे में
बिस्तर पर रूह रख
कुर्सी पर बैठता हूँ
और सुस्ताते हुए पलके मून्द लेता हूँ
बहुत चुप सन्नाटे से
झरती है आवाज़ की अँजोरिया
काँप जाता हूँ सुनकर
कोई पूछता है सवाल —
‘‘आज कितना सफ़र तय किया?
कितना रास्ता तय किया है
मेरे दोस्त मैंने
इस पृथ्वी पर यह मेरी उम्र का बाईसवाँ
पत्थर दरका है
जहाँ मुझे पहुँचना है
वहाँ बिछे कितने पत्थरों पर
कितनी चोटें अभी होनी हैं
उन पर और कितनी ओस गिरनी बाक़ी है !